अखाड़ा शब्द को सुनते ही जो दृश्य मानस पटल पर उभरता है वह 'मल्लयुद्ध' का है, किन्तु यहाँ भाव शब्द की अन्विति और वास्तविक अर्थ से है। "अखाड़ा" शब्द "अखण्ड" शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ न विभाजित होने वाला है। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा हेतु साधुओं के संघों को मिलाने का प्रयास किया था, उसी प्रयास के फलस्वरूप सनातन धर्म की रक्षा एवं मजबूती बनाये रखने एवं विभिन्न परम्पराओं व विश्वासों का अभ्यास करने वालों को एकजुट करने तथा धार्मिक परम्पराओं को अक्षुण्ण रखने के लिए विभिन्न अखाड़ों की स्थापना हुई। अखाड़ों से सम्बन्धित साधु-सन्तों की विशेषता यह होती है कि इनके सदस्य शास्त्र और शस्त्र दोनों में पारंगत होते हैं।
अखाड़ा सामाजिक-व्यवस्था, एकता, संस्कृति तथा नैतिकता का प्रतीक है। समाज में आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य है। अखाड़ा मठों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना है, इसीलिए धर्म गुरुओं के चयन के समय यह ध्यान रखा जाता है कि उनका जीवन सदाचार, संयम, परोपकार, कर्मठता, दूरदर्शिता तथा धर्ममय हो। भारतीय संस्कृति एवं एकता इन अखाड़ों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। अलग-अलग संगठनों में विभक्त होते हुए भी अखाडे़ एकता के प्रतीक हैं। नागा संन्यासी अखाड़ा मठों का एक विशिष्ट प्रकार है। प्रत्येक नागा संन्यासी किसी न किसी अखाड़े से सम्बन्धित रहते हैं। ये संन्यासी जहाँ एक ओर शास्त्र पारंगत होते हैं वहीं दूसरी ओर शस्त्र चलाने का भी इन्हें अनुभव होता है।
वर्तमान में अखाड़ों को उनके इष्ट-देव के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
अखाड़ों की व्यवस्था एवं संचालन हेतु पाँच लोगों की एक समिति होती है जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश व शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है । अखाड़ों में संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा जूना अखाड़ा है इसके बाद निरञ्जनी और तत्पश्चात् महानिर्वाणी अखाड़ा है । उनके अध्यक्ष श्री महंत तथा अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामण्डेलेश्वर के रुप में जाने जाते हैं। महामण्डलेश्वर ही अखाड़े में आने वाले साधुओं को गुरु मन्त्र भी देते हैं। पेशवाई या शाही स्नान के समय में निकलने वाले जुलूस में आचार्य, महामण्डलेश्वर और श्रीमहंत रथों पर आरूढ़ होते हैं, उनके सचिव हाथी पर, घुड़सवार नागा अपने घोड़ों पर तथा अन्य साधु पैदल आगे रहते हैं। शाही ठाट-बाट के साथ अपनी कला प्रदर्शन करते हुए साधु-सन्त अपने लाव-लश्कर के साथ अपने-अपने गन्तव्य को पहुँचते हैं।
अखाड़ों में आपसी सामंजस्य बनाने एवं आंतरिक विवादों को सुलझाने के लिए अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् का गठन किया गया है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् ही आपस में परामर्श कर पेशवाई के जुलूस और शाही स्नान के लिए तिथियों और समय का निर्धारण मेला आयोजन समिति, आयुक्त, जिलाधिकारी, मेलाधिकारी के साथ मिलकर करता है।
आज इन अखाड़ों को बहुत ही श्रद्धा-भाव से देखा जाता है। सनातन धर्म की पताका हाथ में लिए यह अखाड़े धर्म का आलोक चहुँओर फैला रहे हैं। इनके प्रति आम जन-मानस में श्रद्धा का भाव शाही स्नान के अवसर पर देखा जा सकता है, जब वे जुलूस मार्ग के दोनों ओर इनके दर्शनार्थ एकत्र होते हैं तथा अत्यंत श्रद्धा से इनकी चरण-रज लेने का प्रयास करते हैं।
हाथ में दण्ड जिसे ब्रह्म दण्ड कहते है, धारण करने वाले संन्यासी को दण्डी संन्यासी कहा जाता है। दण्डी संन्यासियों का संगठन दण्डी बाड़ा के नाम से जाना जाता है। “दण्ड संन्यास” सम्प्रदाय नहीं अपितु आश्रम परम्परा है। प्रथम दण्डी संन्यासी के रुप में भगवान नारायण ने ही दण्ड धारण किया था।
"नारायणं पद्य भवं वशिष्ठं, शक्तिं च तत्पुत्र पाराशरं च
व्यासं शुकं गौड़ पदं महन्तं गोविन्द योगिन्द्रमथास्य शिष्यं
श्री शंकराचार्यमथास्य पद्य पादं ए हस्तामलकं च शिष्यं
तं त्रोटकं वार्तिककार मनमानस्य गुरु सततं मानतोऽस्मि।।"
तत्पश्चात् भगवान आदि गुरु शंकराचार्य ने चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की और इन चारों मठों में धर्माचार्यों की नियुक्ति की। तदुपरान्त धर्म की रक्षा के लिए शंकराचार्य ने दशनाम संन्यास की स्थापना की, जिनमें तीन (आश्रम, तीर्थ, सरस्वती) दण्डी संन्यासी हुए और सात अखाड़ों के रुप में स्थापित हुए। उपर्युक्त तीन नामों में सर्वप्रथम आश्रम आता है। इनका प्रधान मठ शारदा मठ है, इनके देवता सिद्धेश्वर और देवी भद्रकाली होती हैं तथा इनके आचार्य विश्वरुपाचार्य हैं। इन्हीं में दूसरा नाम तीर्थ आता है जो आश्रम के ही समस्त आचरण को अपनाते हैं। तीसरा नाम सरस्वती है, जो शृंगेरी मठ के अनुयायी होते हैं।
आचार्य बाड़ा सम्प्रदाय ही रामानुज सम्प्रदाय नाम से भी जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के पहले आचार्य शठकोप हुए जो सूप बेचा करते थे। "शूर्पं विक्रीय विचार शठकोप योगी"। उनके शिष्य मुनिवाहन हुए। तीसरे आचार्य यामनाचार्य हुए। चौथे आचार्य रामानुज हुए। उन्होंने कई ग्रन्थ बनाकर अपने सम्प्रदाय का प्रचार किया। तभी से इस सम्प्रदाय का नाम श्री रामानुज सम्प्रदाय हो गया। इस सम्प्रदाय के अनुयायी नारायण की आराधना करते है और लक्ष्मी को अपनी देवी मानते हैं। कावेरी नदी पर ये अपना तीर्थ मानते हैं और त्रिदंड धारण करते हैं।
आचार्य बाड़ा संप्रदाय में ब्रह्मचारी दीक्षा आठ वर्ष से अधिक आयु के बालकों को दी जाती। इसके बाद उन्हें वेद अध्ययन कराया जाता है। सामवेद को ये अपना वेद मानते हैं । आराधना के कई चरणों की परीक्षा के बाद ही उन्हें संन्यास दिया जाता है। उन्हें इस बात की स्वतंत्रता है कि पढ़ाई पूरी होने पर वे चाहे तो गृहस्थ हो सकते हैं परन्तु संन्यासी होने के बाद परिवार से नाता छूट जाता है।
संन्यासियों को पंच संस्कार की दीक्षा दी जाती है- 1. जिनमें शंख चक्र गरम करके हाथ के मूल में स्पर्श कराया जाता है, 2. माथे पर चंदन का त्रिपुंड टीका धारण कराया जाता है 3, सन्तों का भगवान के नाम पर नामकरण किया जाता है 4. तत्पश्चात् उन्हें गुरु मंत्र दिया जाता है, एवं 5. यज्ञ संस्कार के बाद उन्हें संप्रदाय की परम्परा से जोड़ा जाता है।
आचार्य बाड़ा संप्रदाय शरणागति के छह सिद्धान्तों पर आधारित है जो निम्नलिखित है –
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि आचार्य बाड़ा विशिष्टाद्वैतवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है तथा यह सम्प्रदाय अपने और ईश्वर को अलग मानकर अपने इष्ट की आराधना करता है।
इतिहास में प्रसिद्ध तीर्थराज प्रयागराज की प्राचीनता के साथ-साथ प्रयागवालों का भी निकट का सम्बन्ध है। प्रयागराज के अति प्राचीन निवासी होने के कारण इनका नाम प्रयागवाल पड़ा। कुम्भ मेला व माघ मेला में आने वाले तीर्थयात्री प्रयागवाल द्वारा बसाये जाते रहे हैं और वे ही इनका धार्मिक कार्य करते हैं, जिसका विषद् वर्णन मत्स्य पुराण तथा प्रयाग महात्म्य में है। प्रयागराज में आने वाले प्रत्येक तीर्थयात्री का एक विशेष तीर्थ पुरोहित होता है। तीर्थयात्री और पुरोहित का सम्बन्ध गुरु-शिष्य परम्परा का द्योतक है। जिला गजेटियर में मि० नेमिल ने लिखा है-
जो यात्री प्रयाग में आता है, उसका समस्त धार्मिक कर्मकाण्ड प्रयागवाल ही कराता है। सर्वप्रथम बेनीमाधव भेंट तत्पश्चात् संकल्प कराया जाता है। इसके बाद तीर्थयात्रियों का मुण्डन होता है। मुण्डन के पश्चात् स्नान और फिर पिण्ड दान, शय्यादान, गोदान व भूमिदान कराया जाता है। समस्त प्रकार के दान-उपदान प्रयागवाल द्वारा ही कराये जाते हैं। यात्रियों के परिवार की वंशावली उनसे सम्बन्धित तीर्थ पुरोहित की बही में मिलती है। प्रयागवालों के यजमान क्षेत्र व स्नान दान के आधार पर चलते हैं और यह अपने यजमानों की वंशावली सुरक्षित रखते हैं। तीर्थ पुरोहित अपने क्षेत्र के यजमानों की वंशावली तत्काल खोज लेते हैं। यजमान उनकी मोटी बहियों में अपने पूर्वजों के नाम, हस्ताक्षर आदि देखकर प्रसन्न होते हैं। प्रयागवाल शासन से मामूली शुल्क पर भूमि प्राप्त करता है, उस पर टेन्ट या कुटिया की व्यवस्था करता है। इसमें अपने तीर्थयात्रियों को ठहराता है और इससे दान स्वरूप जो लेता है, उसी से अपनी जीविका का निर्वाह करता है।
प्रयागवालों का संगठन प्रयागवाल सभा के नाम से जाना जाता है। यजमानों को टिकाने के लिए भूमि तथा संगम के निकट प्रयागवाल हेतु भूमि का आवंटन प्रयागवाल सभा के माध्यम से होता है। प्रयागवाल तख्तों की संख्या निश्चित है। प्रयागवाल अपने तख्त पर बहियों का बड़ा सा बक्सा रखते हैं तथा इन्हीं तख्तों पर आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड कराये जाते हैं। प्रयागवाल पहचान के लिए एक ऊँचे बाँस पर अपना निशान या झंडा लगाते हैं। तीर्थयात्री इसी झंडे को देखकर अपने प्रयागवाल के पास पहुँचते हैं।
खाक चौक, एक पुरानी कुम्भ परम्परा है, यह वह स्थान है जहाँ तीन वैष्णव अखाड़ों से जुड़े सौ से ज्यादा महंत और मंडलेश्वर रहते हैं। खाक चौक का संचालन और प्रबंधन एक संत की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा किया जाता है। यह प्रयागवालों की तरह व्यक्तिगत तीर्थयात्रियों और आगंतुकों को सुविधाएँ प्रदान करते हैं, खाक चौक प्रबंधन समिति - एक ऐसा संगठन जो अखिल भारतीय अखाड़ों के बाद दूसरे स्थान पर है। यह तीनों वैष्णव अखाड़ों के महंतों और संतों का प्रबंधन करती है और उन्हें खाक चौक के लिए आवंटित भूमि में समायोजित करती हैं।