परम्परा-कुम्भ मेला के मूल को 8वी शताब्दी के महान दार्शनिक शंकर से जोड़ती है, जिन्होंने वाद विवाद एवं विवेचना हेतु विद्वान संन्यासीगण की नियमित सभा संस्थित की। कुम्भ मेला की आधारभूत किंवदंती पुराणों (किंवदंती एवं श्रुत का संग्रह) से अनुयोजित है, जो यह स्मरण कराती है कि कैसे अमृत के पवित्र कलश के लिए सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिससे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में अमृत प्राप्त हुआ तथा भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत कलश को अपने वाहन गरुड़ को दे दिया, गरुड़ उस अमृत कलश को लेकर असुरो से बचाते हुए पलायन किया, इस पलायन में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी। सम्बन्धित नदियों के भूस्थैतिक गतिशीलता का अमृत के प्रभाव ने परिवर्तित कर दिया ऐसा विश्वास किया जाता है जिससे तीर्थयात्रीगण को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव में स्नान करने का एक अनूठा अवसर प्राप्त होता है। शब्द कुम्भ पवित्र अमृत कलश से व्युत्पन्न हुआ है।
प्रयागराज में कुम्भ मेला को ज्ञान एवं प्रकाश के स्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वो में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य जो ज्ञान का प्रतीक है, इस त्योहार में उदित होता है। शास्त्रीय रूप से यह माना जाता है कि ब्रह्मा जी ने पवित्रतम नदी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था।
कुम्भ का तात्विक अर्थ: कुम्भ के भिन्न-भिन्न अर्थ किए जाते है जैसे-