आरती
भारतवर्ष में प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों यथा-नदी, पर्वत, वृक्ष आदि को देव-स्वरुप मान कर उनकी आराधना करने का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। इसी क्रम में जीवनदायिनी निरंतर प्रवाहमय नदियों को प्रमुखता प्रदान की गई है। सरल शब्दों में जीवनदायिनी नदियों के प्रति मानव कृतज्ञ होकर अपने भावों की अभिव्यक्ति उनके तट पर आरती के माध्यम से करता आ रहा है, जिसमें विशाल जनसमूह श्रद्धाभाव से सम्मिलित होता है। कहीं यह संख्या सैकड़ों में होती है, तो कहीं हज़ारों में और कहीं-कहीं लाखों तक पहुँच जाती है। इसी प्रकार श्रद्धाभाव, आदर एवं सम्मान से ओत-प्रोत आरतियाँ तीर्थराज प्रयाग में गंगा एवं यमुना के विभिन्न तटों के साथ-साथ संगम तट पर भी आयोजित होती हैं।
संगम क्षेत्र में विभिन्न स्थलों पर बड़े धूम-धाम से आरतियाँ कराई जाती हैं, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु भाग लेते हैं। विशेष पर्वों पर तो यह संख्या लाखों के पार भी हो जाती है। प्रयागराज में यह आरतियाँ प्रातः एवं संध्याकाल में होती हैं। जिसमें सात, नौ अथवा ग्यारह की संख्या में बटुक (पुजारी) बड़ी-बड़ी थालों में माँ गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती की आराधना बड़े ही भक्ति-भाव से करते हैं। बटुकों के हाथों में आरती की थालियाँ जैसे साक्षात् पंचतत्त्वों के महत्त्व को समझाती दिखती हैं। एक ओर प्रज्वलित दीपों की लौ जल के चरणों में शीश नवाती हैं तो दूसरी ओर उससे उठता धूम्र धरा पर व्योम का स्वांग रचता प्रतीत होता है। सुदूर किसी पुल के ऊपर खड़ा मानुस इस विहंगम दृश्य की एकमात्र झलक अपने मस्तिष्क में बिठा लेना चाहता है, आरती के अलौकिक व दैवीय प्रभाव को आत्मसात कर लेना चाहता है।
स्नान
कुम्भ मेला हिन्दू तीर्थयात्राओं में सर्वाधिक पवित्र पावन तीर्थयात्रा है। प्रयागराज कुम्भ में अनेक कर्मकाण्ड सम्मिलित हैं, जिनमें से स्नान कर्म सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। करोड़ों तीर्थयात्री और श्रद्धालु कुम्भ मेला के अवसर पर त्रिवेणी संगम के पवित्र जल में स्नान करते हैं। पवित्र कुम्भ का स्नानकर्म इस विश्वास के अनुसरण में किया जाता है कि त्रिवेणी संगम के पवित्र जल में डुबकी लगाकर एक व्यक्ति अपने समस्त पाप को धो डालता है, स्वयं को और अपने पूर्वजों को पुनर्जन्म के चक्र से अवमुक्त कर देता है और मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।
स्नान-कर्म के साथ-साथ तीर्थयात्री पवित्र नदी के तटों पर पूजा भी करते हैं और विभिन्न साधु-संतों के साथ सत्संग में प्रतिभाग करते हैं। मकर संक्रांति (जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है) से आरंभ होकर प्रयागराज कुम्भ के प्रत्येक दिन इस कर्मकाण्ड का सम्पादन एक पवित्र स्नान माना जाता है, तथापि कतिपय मांगलिक पवित्र स्नान तिथियाँ और भी हैं। कुम्भ मेला के आरंभ से विहित तिथियों पर शाही स्नान जिसे ‘राजयोगी स्नान’ के रूप में भी जाना जाता है, जिसमें विभिन्न अखाड़ों (धार्मिक आदेशपीठों) के सदस्यों, संतों एवं उनके शिष्यों के द्वारा आकर्षक शोभायात्रायें निकाली जाती हैं। शाही स्नान कुम्भ मेला का केन्द्रीय आकर्षण होने के साथ ही महोत्सव का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग है। केवल शाही स्नान के पश्चात् ही सर्व साधारण को पवित्र स्नान करना अनुज्ञात किया जाता है, जिसमें यह विश्वास निहित है कि जन सामान्य भी पवित्र संतों के पवित्र कार्यों एवं विचारों के सार का लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
कल्पवास
कुम्भ मेले के दौरान संगम तट पर कल्पवास का विशेष महत्त्व है। पद्म पुराण एवं ब्रह्म पुराण के अनुसार कल्पवास की अवधि पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारंभ होकर माघ मास की एकादशी तक है। पद्म पुराण में महर्षि दत्तात्रेय ने कल्पवास की पूर्ण व्यवस्था का वर्णन किया है। उनके अनुसार कल्पवासी को इक्कीस नियमों का पालन करना चाहिए। ये नियम हैं – सत्यवचन, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, सभी प्राणियों पर दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यसनों का त्याग, सूर्योदय से पूर्व शैय्या-त्याग, नित्य तीन बार सुरसरि-स्न्नान, त्रिकालसंध्या, पितरों का पिण्डदान, यथा-शक्ति दान, अन्तर्मुखी जप, सत्संग, क्षेत्र संन्यास अर्थात्् संकल्पित क्षेत्र के बाहर न जाना, परनिन्दा त्याग, साधु-संतों की सेवा, जप एवं संकीर्तन, एक समय भोजन, भूमि शयन, अग्नि सेवन न करना। इनमें से ब्रह्मचर्य, व्रत एवं उपवास, देव पूजन, सत्संग, दान का विशेष महत्त्व है।
ब्रह्मचर्य (ब्रह्मचर्य का अभ्यास)
ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है-ब्रह्म में विचरण करना अर्थात्् स्वयं ब्रह्म होने की ओर अग्रसर हो जाना। सरल शब्दों में कहा जाए तो कामासक्ति का त्याग ही ब्रह्मचर्य है, जैसे विलासिता पूर्ण व्यसनों का त्याग, गरिष्ठ भोज्य पदार्थों का त्याग, वासना का त्याग ब्रह्मचर्य पालन के मुख्य अंग हैं।
व्रत एवं उपवास
व्रत एवं उपवास कल्पवास का अति महत्त्वपूर्ण अंग है| कुम्भ के दौरान विशेष दिनों पर व्रत रखने का विधान किया गया है। व्रतों को दो कोटियों में विभाजित किया गया है – नित्य एवं काम्य। नित्य व्रत से तात्पर्य बिना किसी अभिलाषा के ईश्वर प्रेम में किये व्रतों से है, जिसकी प्रेरणा आध्यात्मिक उत्थान पर होती है। वही काम्य व्रत किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए किये गये व्रत होते हैं। मनु के अनुसार धर्म के दस लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, स्वार्थपरता का त्याग, चोरी न करना, शारीरिक पवित्रता, इन्द्रियनिग्रह, बुद्धिमता, विद्या, सत्य वाचन एवं क्रोध न करना। व्रत के दौरान इनका पूर्ण पालन किया जाना आवश्यक होता है, इसके सम्बन्ध में एक श्लोक में वर्णन भी मिलता है।
"धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।"
देव पूजन
ऐसी मान्यता हैं की कुम्भ के समय देवतागण स्वयं संगम क्षेत्र में विचरण करते हैं। इस समय श्रद्धा भाव से उनका ध्यान करने से कल्याण होता है। देव पूजन में श्रद्धा का भाव सर्वोपरि है, यदि भक्ति में श्रद्धा का भाव ही न हो तो वह कदापि फलदायी नहीं होती।
दान
कुम्भ के दौरान दान का बड़ा महत्त्व है। यहाँ दान देने वाले एवं लेने वाले, दोनों को लाभ होता है अतः कुम्भ में दिया दान त्याग से भी श्रेष्ठ माना गया है। कुम्भ में गो-दान, वस्त्र दान, द्रव्य दान, स्वर्ण दान आदि का बड़ा महत्त्व है। सम्राट हर्षवर्धन तो यहाँ हर बारह वर्ष पर अपना सर्वस्व दान दे देते थे।
सत्संग
सत्संग का शाब्दिक अर्थ है सत्य की संगति में रहना। कुम्भ के समय श्रद्धालुओं को सन्तों के सानिध्य में रहना चाहिए, उनके प्रवचनों को सुनना चाहिए, ताकि नि:स्वार्थ भाव एवं ऊँच-नीच का आडम्बर समाप्त हो सके और मनुष्य उत्कृष्ट जीवन उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सके।
श्राद्ध एवं तर्पण
श्राद्ध से तात्पर्य श्रद्धा पूर्वक पितरों को पिण्ड दान देने से है। श्राद्धकर्म पुरोहितों के माध्यम से कराया जाने वाला कर्म है, जिसके लिए प्रयागराज में पुरोहित होते हैं, जिनके पास श्राद्ध कर्म करवाने हेतु आए व्यक्ति की वंशावली होती है। तर्पण कर्म के लिए पुरोहित की अनिवार्यता नहीं होती, यदि व्यक्ति समुचित प्रक्रिया का सम्पादन कर सकता है, तो यह कर्म स्वयं द्वारा भी किया जा सकता है।
वेणी दान
प्रयागराज में वेणी दान का बड़ा महत्त्व है। इसमें व्यक्ति अपनी शिखा के बाल छोड़कर समस्त बाल गंगा में अर्पित कर देता है। ऐसी मान्यता है कि केश के मूल में पाप निवास करता है। ऐसे में लोकमान्यता है कि प्रयाग में कुम्भ मेले से बेहतर स्थान व समय वेणी दान के लिए नहीं हो सकता है।
कल्पवास के दौरान साफ सुथरे श्वेत वस्त्रों को धारण करना चाहिए। पीले एव सफ़ेद रंग का वस्त्र श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार से आचरण कर मनुष्य अपने अंतःकरण एवं शरीर दोनों का कायाकल्प कर सकता है।
दीप दान
असंख्य दीपों की झिलमिलाहट से दैदीप्यमान त्रिवेणी संगम एक अद्वितीय अनुभूति से अन्तर्मन को भर देता है। जगमग दीपों की माला पूरे वातावरण में अलौकिक अध्यात्म का प्रकाश ऐसे फैला देती है, कि नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति के मानसिक पटल पर श्रद्धा एवं आदर का भाव हिलोरे लेने लगता है। "दीपदान" का शाब्दिक अर्थ है दीप का दान, अर्थात्् किसी विशेष स्थान जैसे नदी किनारे, मन्दिर, धार्मिक वृक्षों के समीप, वन में, या किसी अन्य स्थल पर दीप जलाना। यह अत्यधिक सरल वैदिक विधान है, जो यज्ञ जितना ही पुण्यफल दायक है।
श्रद्धालु किसी विशेष महीने में किसी विशेष स्थान पर किसी विशेष अनुष्ठान के समय भी दीपदान करते हैं। जैसे कार्तिक मास में तुलसी के समीप दीपदान किया जाता है। गंगा दशहरा, देव दीपावली, माघ मेला या कुम्भ मेला जैसे पर्वों पर माँ गंगा को दीप समर्पित करने का विधान है, जिसमें श्रद्धालु पत्तों से बने दोने में आटे से बने दीपक में घी के तेल से भीगी बत्ती जला कर जल में समर्पित कर देते हैं , इस प्रकार से वे नदियों के प्रति श्रद्धा दिखाते हैं। कुछ लोग व संस्थाएं नदी तट पर ही दीपों को लाखों की संख्या में सजाते हैं। इसी प्रकार कुछ लोग नौकायन के द्वारा हजारों की संख्या में दीपदान करते हैं। बहते जल के ऊपर जलते दीपक सुरसरि में टिमटिमाते तारों के समान प्रतीत होते हैं। एक ओर से दूसरी ओर जल पर तैरते दीपक, देखने वाले का मन मोह लेते हैं।
त्रिवेणी संगम
तीर्थराज प्रयाग की पुण्यभूमि पर माँ गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती का मिलन ही त्रिवेणी संगम कहलाता है। कहते हैं जब गंगा एवं यमुना के संगम की बात चली तब गंगा जी ने यमुना जी से मिलने से मना कर दिया। किंवदंती के अनुसार गंगा जी यमुना जी के विशद क्षेत्र एवं गहराई से चिंतित थीं। उन्हें यह डर था कहीं यमुना जी से मिलने से उनका अस्तित्व न समाप्त हो जाए, इस पर यमुना जी हँस पड़ी और उन्होंने गंगा जी को आश्वस्त किया कि संगमोपरान्त गंगा जी ही पूर्ण-रूप से जानी जायेंगी। इस विषय में एक और कथा प्रचलित है कि जब सूर्य-सुता यमुना एवं गंगा के संगम की चर्चा हो रही थी तब गंगा जी ने यमुना जी के श्याम रंग के कारण उनसे मिलने से इनकार कर दिया था।
इस पर भगवान भास्कर अत्यधिक नाराज़ हुए और उन्होंने गंगा जी को कलयुग में मैला एवं मृत शरीर ढोने का शाप दे दिया। इस पर गंगा जी बहुत व्यथित हुयी, उन्होंने अपनी पीड़ा भगवान् विष्णु को बताई। विष्णु जी ने कहा कि वे भगवान् भास्कर का शाप तो नहीं लौटा सकते परन्तु यह वरदान देते हैं कि बिना गंगा के जल के कोई भी पुण्यकर्म पृथ्वी पर पूर्ण नहीं माना जायेगा। साथ ही उन्होंने यमुना जी को वरदान दिया कि तुम्हारा जल अक्षयवट के सम्पर्क में आते ही पापनाशक हो जायेगा। इसपर गंगा जी बहुत प्रसन्न हुई एवं बोली अब यमुना जी के मिलन से मेरी महत्ता भी बढ़ जाएगी। सरस्वती जी भी अक्षयवट के महत्त्व को समझते हुए प्रभु आज्ञा से इस संगम में आ गई। प्रयागराज के इस अद्वितीय त्रिवेणी संगम का महत्त्व इस कारण भी है कि ब्रह्मा जी ने यहाँ भगवान् शिव को इष्ट मान कर यज्ञ किया था, जिसकी रक्षा स्वयं भगवान् विष्णु माधव रूप में कर रहे थे। दूसरा, कालान्तर में इसे ही पृथ्वी का केंद्र भी माना गया है। ऐसे में तीर्थराज प्रयागराज एवं त्रिवेणी संगम का महत्त्व स्वतः ही अत्यधिक बढ़ जाता है।
महाभारत में साठ करोड़ दस हजार तीर्थ प्रयाग में बताये गये हैं, जिनमें से अधिकांश तीर्थों का आधार संगम ही है। मान्यता है कि अधिकांश तीर्थ स्वयं गंगा जी एवं यमुना जी द्वारा लाये गये थे। पृथ्वी के जिस कण पर इनका जल पड़ता है वह स्थान स्वतः ही तीर्थ हो जाता है। सम्भवतः यही कारण है कि आदिकाल से जिस स्थान को ये धाराएँ पवित्र करती हैं, माघ माह में उसी पर संन्यासी आराधना करते हैं। चाहे वह महाकुम्भ का अवसर हो या कुम्भ मेले का अथवा हर साल लगने वाले माघ मेले का, उसी स्थान को आराधना के लिए उपयुक्त माना गया है जहाँ तक जल पहुंचा है। तीर्थ-स्थलों पर जिन पञ्चकर्मों स्नान, दान, ब्रह्मभोज, उपवास, परिक्रमा का विधान है, वे सभी संगम पर अति-फलदायक होते हैं।
विभिन्न ग्रंथों में संगम स्नान का अलग-अलग महत्त्व बताया गया है। ब्रह्म पुराण के अनुसार संगम स्नान से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है तथा मत्स्य पुराण के अनुसार दस करोड़ तीर्थों का फल मिलता है। महाभारत के एक सूक्त में संगम में स्नान के फल स्वरुप प्राप्त पुण्य को राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञों के पुण्यफल के बराबर बताया गया है।
"तत्राभिषेकं यः कुर्यात् संगमे शंसितव्रतः ।
तुल्यं फलवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयो:।।"
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में विभिन्न तिथियों पर स्नान के भी अलग अलग फल बताये गये हैं। जैसे अमावस्या पर स्नान करने से अन्य दिनों की अपेक्षा सौ गुणा अधिक फल प्राप्त होता है। संक्रांति में स्नान करने से हज़ार गुणा, सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण के समय स्नान करने से सौ लाख गुणा। यदि सोमवार के दिन चन्द्र ग्रहण या रविवार को सूर्य ग्रहण पर स्नान किया जाए तो अपार पुण्यफल की प्राप्ति होती है।
दान व समर्पण का महात्म्य स्वयं कृष्णप्रिया यमुना से परिलक्षित होता है, जो अपनी विशालता एवं अपने सर्वस्व को त्यागकर प्राणि मात्र के कल्याण के निमित्त गंगा में समाहित हो जाती हैं। यही त्याग और समर्पण ही संगम का मूल है, जैसा कि सम्राट हर्षवर्धन का दान अति-विशिष्ट एवं प्रसिद्ध है, वे प्रत्येक बारहवें वर्ष संगम तट पर लगने वाले कुम्भ में अपना सर्वस्व दान कर देते थे।
साथ ही माघ मास के दौरान कल्पवासी आदिकाल से ही ब्रह्मभोज, उपवास एवं प्रयागराज में स्थित तीर्थों की परिक्रमा करते आ रहे हैं। इन सब के साथ ही संगम पर मुण्डन का विधान है। मान्यता है कि संगम तट पर मुण्डन से अनेक विघ्न बाधाएं स्वतः ही दूर हो जाती हैं।
प्रयागराज पंचकोसी परिक्रमा
परिक्रमा शब्द के कानों में पड़ते ही मस्तिष्क में जो पहली छवि बनती है, वह श्रद्धाभाव से प्रभुनाम की धुन में मगन, प्रभु दर्शन की आस में किसी निश्चित मार्ग पर निकल पड़े भक्त की होती है। तीर्थ स्थानों की परिक्रमा की प्रथा सनातन है। बिना परिक्रमा, तीर्थ के यथार्थ फल प्राप्ति की कल्पना व्यर्थ है। कलयुग में प्रजापति क्षेत्र (प्रयागराज की सीमा अक्षयवट के चारों ओर ढाई-ढाई कोस है), जिससे एक ओर से दूसरी ओर की दूरी पाँच कोस या इससे कुछ कम-ज्यादा आ जाती है। सम्भवतः यही कारण रहा है कि आदिकाल से तीर्थराज प्रयागराज में कुम्भ मेले के दौरान विशेष रूप से पंचकोसी परिक्रमा की जाती रही है, जिसमें प्रयागराज के समस्त प्रमुख तीर्थों (द्वादश माधव सहित) के दर्शन के साथ-साथ तीनों अग्नि कुण्डों (झूँसी, अरैल, तथा प्रयागराज) की भी परिक्रमा हो जाती है।
विस्तार के सन्दर्भ में एक श्लोक भी मिलता है -
"दुर्वासाः पूर्वभागे निवसति बदरीखंडनाथः प्रतीच्याम् ।
पर्णाशो याम्यभागे धनददिशि तथा मंडलश्च मुनीशः ।
पंचक्रोशे त्रिवेण्याः परित इह सदा सन्ति सामांत भागे ।
सुक्षेत्रं योजनानाम् शरमित मभितो भुक्ति-मुक्ति पदंतत् ।।"
अर्थात्् पूर्व में दुर्वासा मुनि के आश्रम को सीमा माना गया है और पश्चिम में यह सीमा बनखंडी शिव तक जाती है। इसी प्रकार उत्तर में पड़िला महादेव से दक्षिण में पर्णासमुनि आश्रम पनासा तक सीमा है।
यहाँ एक तथ्य ध्यान देने योग्य है कि प्रयागराज की पंचकोसी परिक्रमा अन्य तीर्थों से भिन्न है। इसमें गंगा, यमुना और मिश्रित संगम के किनारों को मिलाकर छः तट बनते हैं। जिनमें बहुत से तीर्थ आते हैं, अतः परिक्रमा में यह तट नहीं छूटने चाहिए इसका विशेष ध्यान देना होता है।
प्रयाग महात्म्य के अनुसार परिक्रमा में छह बातें ध्यान देने योग्य हैं –
- तीनों अग्नि स्वरूप, प्रयाग, अलर्कपुरी (अरैल), तथा प्रतिष्ठानपुरी (झूँसी) की परिक्रमा हो जाये।
- तटों का कोई प्रधान तीर्थ न छूटे।
- प्रयागराज के अष्टनायक त्रिवेणी माधव, सोम, भरद्वाज, वासुकी, अक्षयवट, शेष और प्रयाग इस परिक्रमा में हों।
- प्रजापति क्षेत्र की जो सीमा निर्धारित है, उससे आगे न जाया जाये।
- जिस दिशा में जिस स्थान पर तीर्थों की सीमा का कथन किया गया है, उसे ही निश्चित सीमा मानी जाये।
- परिक्रमा दक्षिणावर्त होनी चाहिए।
यह परिक्रमा सर्वप्रथम त्रिवेणी संगम में स्नान-ध्यान से प्रारम्भ होती है। यहाँ तीनों वेणियों का ध्यान करने के साथ ही संगम में विलुप्त श्री आदि वेणी माधव का ध्यान करना चाहिए। यथाशक्ति दान देकर, अक्षयवट तथा उनके सानिध्य में वास करने वाले देवता, ऋषियों का पूजन कर यमुना किनारे घृतकुल्या, मधुकुल्या, निरंजनतीर्थ, आदित्यतीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, पापमोचनतीर्थ, रामतीर्थ, सरस्वती कुण्ड, गौघट्टनतीर्थ, कामेश्वरतीर्थ मनकामेश्वर के दर्शन करते हुए बरुआ/बलुआ घाट से तक्षकेश्वर शिव जी के मन्दिर में जाना चाहिए। वहाँ से तक्षक कुण्ड, कालियह्रीद, चक्रतीर्थ, आदि का मार्जन प्रणाम करते हुए सिन्धु सागर तीर्थ पर पहुँचना चाहिए। वहाँ से अतरसुइया पहुंचकर ललिता देवी के दर्शन कर पाण्डव कूप की प्रदक्षिणा करते हुए वरुण कूप के दर्शन करते हुए सूर्यकुण्ड जाना चाहिए और फिर यहाँ से भारद्वाज मुनि के आश्रम में जाना चाहिए।
इसके बाद नागवासुकि मन्दिर में असि माधव सहित नागवासुकि के दर्शनोपरांत दारागंज में श्री वेणी माधव जी के दर्शन करने चाहिए। वहाँ से दशाश्वमेधेश्वर शिव के दर्शन करते हुए गंगा जी के किनारे के लक्ष्मी तीर्थ, उर्वशीतीर्थ, दत्त, सोम, सूर्यतीर्थ, कुबेरतीर्थ, वायुतीर्थ, अग्नितीर्थ, दुर्वासा आदि तीर्थों को प्रणाम कर वट-मूल में पहुँच कर त्रिवेणी स्नान करना चाहिए। इस प्रकार अंतर्वेदी के समस्त तीर्थों के दर्शन सम्पन्न होते हैं।
यहाँ से पुनः उत्तर की दिशा में अरैल में सुधारसतीर्थ, शूलटन्केश्वर और उर्वशी आदि तीर्थों में दर्शन मार्जन करते हुए आदि माधव जी के दर्शन करने चाहिए। वहाँ से दर्शनोपरांत हनुमान तीर्थ, सीताकुण्ड, रामतीर्थ, चक्र माधव, वीरतीर्थ, आदि में प्रणाम करते हुए सोमेश्वरनाथ जी के मन्दिर में दर्शन का विधान है। यहाँ से छिवकी स्टेशन के पास स्थित कम्बलाश्वत्तरनाग के क्षेत्र में पहुँचना चाहिए, यहाँ श्री गदा माधवजी के दर्शन तथा सैनी देवी के चबूतरे की प्रदक्षिणा करनी चाहिए यहाँ से वीकरक्षेत्र में स्थित श्री पद्ममाधव के दर्शन के साथ सुजावनदेव के दर्शन करने चाहिए। यहाँ से मार्ग में पड़ने वाले तीर्थों को प्रणाम करते हुए प्राचीन बनखंडी महादेवजी के दर्शन करने चाहिए। सम्भवतः यही स्थान बहुमूलक नाग का भी है।
इसके उपरान्त चौफटका के आगे देवगिरवा में श्री अनंत माधव जी के दर्शन करने चाहिए फिर यहाँ से मार्ग में पड़ने वाले तीर्थों के दर्शन करते हुए द्रोपदी घाट पर श्री विन्दु माधव जी के दर्शन करने के साथ द्रोपदी मन्दिर में दर्शन करने चाहिए। यहाँ से शिवकुटी में दर्शन करने के बाद पड़िला महादेव के दर्शन के बाद सोनौटी-बदरा होते हुए सीधा नागेश्वर शिव जी के दर्शन करने चाहिए तथा छतनाग के अन्य तीर्थों के दर्शन करने चाहिए। यहाँ से मुन्शी बगीचे में स्थित श्री शंख माधव जी के दर्शन करने के बाद व्यास आश्रम में समुद्रकूप के दर्शन, एलतीर्थ, संकष्टहर माधव के दर्शनोप्रांत दशाश्व्मेध घाट से होते हुए पुनः अक्षयवट के दर्शन करने चाहिए एवं उसके उपरान्त त्रिवेणी जी में यात्रा समाप्त करनी चाहिए।
प्रयागराज तीर्थों की परिक्रमा में मनुष्य जितने पग श्रद्धाभाव से चलता है उतने अश्वमेध यज्ञों के फल उसे प्राप्त होते हैं। मत्स्य पुराण में श्री मार्कंडेय जी स्वयं इस बात की पुष्टि करते हैं।
श्री माधव मन्दिर
1. श्री आदिवेणी माधव
श्री आदि वेणी को संगम त्रिवेणी में विलुप्त बताया जाता है। अतः इसका कोई दृश्य तीर्थ ना होते हुए सम्पूर्ण त्रिवेणी को ही इनका धाम माना गया है।
2. श्री असि माधव
श्री असि माधव का स्थान दारागंज स्थित नागवासुकि मन्दिर में बताया जाता है। ऐसी मान्यता है कि स्वयं भगवान् शिव के साथ असि माधव जी ने ही नागों को यहाँ रहने की आज्ञा दी थी। गंगा तट पर स्थित यह मन्दिर एक ऊँचे मंच पर स्थित है। मन्दिर का स्थापत्य आर्य शैली पर आधारित है। यहाँ असि माधव को प्रधान मन्दिर के एक आलय में स्थापित किया गया है।
3. श्री संकष्टहर माधव
प्रतिष्ठानपुरी (झूंसी) में गंगा तट से कुछ 200 मीटर पर स्थित परमपूज्य श्री प्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी के आश्रम के सामने ही श्री संकष्टहर माधव जी का धाम है। कहते हैं यहाँ स्थित प्राचीन वट के नीचे बैठकर ब्रह्मचारी जी प्रभु का ध्यान करते थे। यहीं पर एक नए मन्दिर प्रांगण का निर्माण कर माधव जी की प्रतिमा की स्थापना की गई है।
4. श्री शंख माधव
छतनाग घाट के पास मुन्शी बगीचे में स्थापित हैं। यह स्थान संगम से ठीक पूर्व दिशा में है। आज यहाँ महर्षि सदाफलदेव आश्रम भी है, जिसका रास्ता एम. पी. बिरला शिक्षा भवन के ठीक सामने से जाता है। आर्य शैली पर आधारित परिसर में माधव जी की प्रतिमा स्थापित है।
5. श्री चक्र माधव
अग्नि कोण में स्थित अरैल क्षेत्र के चाक बेनीराम में कुछ पचास वर्ष पूर्व श्री चक्र माधव जी के मन्दिर का निर्माण हुआ था।
6. श्री आदि माधव
अरैल घाट के समीप श्री रामेश्वर महादेव मन्दिर के पास ही श्री आदि माधव जी का स्थान है। परम्परागत आर्य शैली के निर्मित मन्दिर में इनका स्थान है। आस-पास कई और मन्दिर एवं आश्रम भी हैं।
7. श्री गदा माधव
श्री गदा माधव जी का स्थान श्री चक्र माधव जी के दक्षिण में बताया जाता है। छिवकी रेलवे जंक्शन के पास ही एक नव-निर्मित भवन में श्री गदा माधव जी का स्थान है। लगभग दस मीटर लम्बे गलियारे में प्राचीन मूर्ति के अवशेष की स्थापना की गई है। जो कि श्री चरणों का भाग है एवं जिसकी उचाई लगभग पन्द्रह इंच से थोड़ी ज्यादा या कम है। दक्षिण में प्रजापति क्षेत्र का यह स्थान सीमा भी माना गया है।
8. श्री पद्म माधव
श्री पद्म माधव के स्थान से सम्बन्धित जो साक्ष्य प्राप्त होते हैं वो उनके स्थान को नैनी के पश्चिम में स्थित वीकर में बताते हैं। बीकर देवरिया में यमुना जी की धारा के बीच एक टीले पर शिव जी का मन्दिर है इसी मन्दिर को सुजावन देव के नाम से भी जाना जाता है। इस मन्दिर के समीप ही पद्म माधव मन्दिर भी है। श्रद्धालु यहाँ दर्शन हेतु जाने के लिए नौका का प्रयोग कर सकते हैं।
9. श्री मनोहर माधव
कमला नेहरु मार्ग पर स्थित श्री बाबा दरेवानाथ मन्दिर में ही श्री मनोहर माधव जी का स्थान बताया जाता है। कहा जाता है कि कुबेरजी ने स्वयं इनकी आराधना की थी। यहाँ कभी कुबेरजी का आश्रम भी हुआ करता था।
10. श्री विन्दु माधव
यह क्षेत्र अब छावनी के अन्तर्गत आता है। यहाँ द्रौपदी घाट पर श्री विन्दु माधव जी स्थापित हैं। आज यह स्थान द्रौपदी जी के अन्तर्गत ही आता हैं।
11. श्री वेणी माधव
दारागंज में निराला मार्ग पर एक दो मंजिले मन्दिर में श्री वेणी माधव जी का स्थान है। यह मन्दिर समस्त श्री माधव मन्दिरों में सबसे अधिक प्रसिद्द है।
12. श्री अनन्त माधव
त्रिवेणी से पश्चिम की दिशा में खुल्दाबाद से लगभग चार किलोमीटर आगे देवागिरवा में अन्नंत माधव का स्थान बताया गया है। यह मन्दिर और इसके आस-पास का क्षेत्र आज आर्मी छावनी के क्षेत्र में आता है।
इन द्वादश माधवों के अलावा भी प्रयागराज में एक माधव और बताये जाते हैं वट माधव जिनका स्थान अक्षयवट के मूल में बताया गया है।
अक्षयवट/पाताल पुरी मन्दिर
सृष्टि के प्रलयकाल में भी जिस ‘अक्षयवट’ के नष्ट न होने की चर्चा अनेक धर्मग्रंथो, पुराणों में वर्णित है वही अक्षयवट बीते पांच सौ वर्षों से अकबर निर्मित प्रयागराज किले में तहखाने में स्थित पातालपुरी मन्दिर का हिस्सा है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी इस अक्षयवट की चर्चा "पूजहिं माधव पद जल जाता। परसि अक्षयवट हरषहिं गाता"। के रूप में चर्चा की है। यहाँ जाने के लिए संगम की तरफ से भी एक रास्ता है पर किले में सैन्य छावनी होने के कारण यह बंद रहता है। इसकी कुछ शाखाएं पातालपुरी मन्दिर के पास के हिस्से में सुरक्षित हैं।
वल्लभाचार्य की बैठक
यमुना पार के अरैल गांव में कृष्णभक्ति आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार वल्लभाचार्य की बैठक है। यहीं रहकर उन्होंने लम्बे समय तक साधु-संतों की सेवा की और फिर देश भ्रमण किया। आचार्य ने पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया और कई राज्यों में इनकी शिष्य परम्परा भी विकसित हो गयी।
पड़िला महादेव
प्रयाग शहर से 15 किलोमीटर उत्तर फाफामऊ-वाराणसी मार्ग पर पड़िला महादेव का प्रसिद्ध मन्दिर अति प्राचीन है। इसके परिसर में एक बैजू मन्दिर भी है। बैजू भगवान शिव का परम भक्त थे। कहते हैं अज्ञातवास के दौर में पांडव बंधुओं ने इस मन्दिर के शिवलिंग की स्थापना की थी। आज श्रावण मास में यहाँ शिवभक्तों, कांवरियों का ताँता लगा रहता है।
कोटितीर्थ (शिवकुटी)
तीर्थेश्वर भगवान शिव के इस धाम में श्रावणमास पर्यन्त मेला रहता है। इस तीर्थ के दर्शन और स्नान का विशेष महत्त्व है। यहाँ दान-पुण्य, पितृ तर्पण का अनंत फल मिलता है। कहते हैं कि महर्षि भरद्वाज के निर्देश पर भगवान राम ने यहीं पर मिट्टी-बालू के सहस़्त्र शिवलिंग बनाकर ब्रह्महत्या से दोषमुक्त होने के लिए पूजा-अर्चना की थी।
शक्तिपीठ-शीतला धाम
भारतवर्ष में 51 शक्ति पीठों में कड़ा के शीतला धाम की बहुत महिमा है। यहीं पर किसी राक्षस का वध करने के लिए मां शीतला ने कालरात्रि का रूप धारण कर उसका अंत किया था। अब यह नवसृजित कौशाम्बी जिले का एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थल है।
शक्तिपीठ मां ललिता देवी
मीरापुर मुहल्ले में स्थित मां ललिता देवी मन्दिर भी शक्ति के 51 शक्तिपीठों में माना गया है, किन्तु यह मन्दिर बहुत पुराना नहीं है। 50 बरस पहले प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने पहले यहीं पर एक छोटा मन्दिर बनवाया, फिर हाल के वर्षो में इसका विस्तार हो गया है।
शक्तिपीठ मां कल्याणी देवी
मां कल्याणी को महर्षि भारद्वाज की अधिष्ठात्री कहा जाता है। वर्तमान मन्दिर कम से कम 1500 वर्ष पुराना है। कहते हैं महर्षि याज्ञवल्क्य ने 32 अंगुली की कल्याणी देवी की प्रतिमा भी यहीं पर स्थपित की थीं इस मन्दिर की भक्तों में गहरी आस्था है।
शक्तिपीठ-अलोपशंकरी देवी
अलोपीबाग मुहल्ले में स्थित अलोपशंकरी देवी का मन्दिर महानिर्वाणी पंचायत अखाडे़ के प्रबंधन में है। कहते हैं यह देश के 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहाँ देवी सती की अंगुलियां गिरी थीं। यहाँ देवी की कोई प्रतिमा नहीं है। मन्दिर में एक चौकोर चबूतरे के मध्य एक कुण्ड है जिसमेंं जल भरा रहता है। कुण्ड के ठीक ऊपर मन्दिर की छत से लटकता एक झूला है। इसी झूले और कुण्ड की पूजा की जाती है।
तुलसीदास जी का बड़ा स्थान
मेला क्षेत्र में स्थित दारागंज के दक्षिण द्वार पर तुलसीदास का बड़ा स्थान है। अकबर ने त्रिवेणी बांध निर्माण के दौरान इस सिद्ध स्थल को हटाने की बहुत कोशिश की पर सिद्ध महात्मा लोग इसके लिए तैयार नहीं हुए। चारों वैष्णव सम्प्रदाय के लोग यहीं से हनुमानजी की विजय पताका, ध्वज लेकर कुम्भ स्नान के लिए निकलते थे। फिर अगले कुम्भ तक के लिए 12 वर्षों तक यह पताकाएं यहीं सुरक्षित रखी जाती थीं।
बड़े हनुमानजी
संगम तट पर त्रिवेणी बांध के नीचे ही बड़े हनुमान जी का मन्दिर है। लोकमान्यता है कि देश में यह एकमात्र प्रतिमा है, जो लेटी अवस्था में है। हनुमान जी का पांव दक्षिण दिशा की ओर है तथा एक पांव के नीचे पाताल की देवी ‘कामदा’ की प्रतिमा है, दूसरे के नीचे अहिरावण दबा पड़ा है। दाहिनी भुजा के नीचे मकरध्वज है तथा बायें में श्रीराम और लक्ष्मण विराजमान हैं। रोजाना यहाँ भारी भीड़ जुटती है। कहा जाता है कि गंगा तट पर इस मन्दिर का निर्माण प्रयाग के सिद्ध पुरूष बाघम्बरी बाबा ने कराया था।
शंकर विमान मण्डपम्
त्रिवेणी बांध के गंगा तट पर कांची कोमकोटि पीठम् के शंकराचार्य स्वामी चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती ने 16 खम्बों पर आधारित इस मन्दिर की स्थापना की। इस मन्दिर में 300 से अधिक मूर्तियाँ हैं। दक्षिण भारतीय शिल्पकारों ने इसे कई वर्षों के अथक परिश्रम से तैयार किया था। तीन तल वाले इस मन्दिर के तीसरे तल में सहस्त्र मुखी शिवलिंग भी स्थापित है।
पातालपुरी मन्दिर
प्रयागराज किले के तहखाने में यह मन्दिर होने के नाते इसे सिर्फ माघ माह में दर्शनार्थ खोला जाता है। इसके अंदर गणेश, गुरु गोरखनाथ, नृसिंह, शिवलिंग धर्मराज आदि की 40 से अधिक मूर्तियाँ हैं।