कुम्भ पर्व का मूलाधार पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ खगोलीय विज्ञान भी है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ ही कुम्भ पर्व के काल का निर्धारण करती है। कुम्भ पर्व एक ऐसा विशेष पर्व है जिसमेंं तिथि, ग्रह, मास आदि का अत्यन्त पवित्र योग होता है। कुम्भ पर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरु और शनि के सम्बध से सुनिश्चित होता है। इसके विषय में स्कन्द पुराण में लिखा गया है कि -

चन्द्रः प्रश्रवणाद्रक्षां सूर्यो विस्फोटनाद्दधौ।
दैत्येभ्यश्र गुरु रक्षां सौरिर्देवेन्द्रजाद् भयात्।।
सूर्येन्दुगुरुसंयोगस्य यद्राशौ यत्र वत्सरे।
सुधाकुम्भप्लवे भूमे कुम्भो भवति नान्यथा।।


अर्थात््् जिस समय अमृतयुक्त कुम्भ को लेकर देवताओं एवं दैत्यों में संघर्ष हुआ उस समय चंद्रमा ने उस अमृतकुम्भ से अमृत के छलकने से रक्षा की और सूर्य ने उस अमृत कुम्भ की टूटने से रक्षा की। देवगुरु बृहस्पति ने दैत्यों से तथा शनि ने इंद्रपुत्र जयन्त की रक्षा की। इसीलिए उस देव-दैत्य संघर्ष में जिन-जिन स्थानों पर (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन, नासिक) जिस-जिस दिन सुधा कुम्भ छलका है उन्हीं-उन्हीं स्थलों में उन्हीं तिथियों में कुम्भ पर्व होता है। देव-दैत्यों का युद्ध सुधा कुम्भ को लेकर 12 दिन तक 12 स्थानों में चला और उन 12 स्थलों में सुधा कुम्भ से अमृत छलका जिनमें पूर्वोक्त चार स्थल मृत्युलोक में है शेष आठ इस मृत्युलोक में न होकर अन्य लोकों में (स्वर्ग आदि लोकों में) माने जाते हैं।

ज्योतिषाचार्यों द्वारा वृष राशि में गुरु मकर राशि में सूर्य तथा चंद्रमा माघ मास में अमावस्या के दिन कुम्भ पर्व की स्थिति देखी गयी है। इसलिए प्रयाग के कुम्भ पर्व के विषय में- "वृषराषिगतेजीवे" के समान ही "मेषराशिगतेजीवे" ऐसा उल्लेख मिलता है।

कुम्भ पर्वों का जो ग्रह योग प्राप्त होता है वह लगभग सभी जगह सामान्य रूप से बारहवे वर्ष प्राप्त होता है, परन्तु कभी-कभी ग्यारहवें वर्ष भी कुम्भ पर्व की स्थिति देखी जाती है। यह विषय अत्यन्त विचारणीय हैं, सामान्यतया सूर्य चंद्र की स्थिति प्रतिवर्ष चारोंं स्थलों में स्वतः बनती है। उसके लिए प्रयाग में कुम्भ पर्व के समय वृष के गुरु रहते हैं जिनका स्वामी शुक्र है। शुक्रग्रह ऐश्वर्य भोग एवं स्नेह का सम्वर्धक है। गुरु ग्रह के इस राशि में स्थित होने से मानव के वैचारिक भावों में परम सात्विकता का संचार होता है जिससे स्नेह, भोग एवं ऐश्वर्य की सम्प्राप्ति के विचार में जो सात्विकता प्रवाहित होती है उससे उनके रजोगुणी दोष स्वतः विलीन होते हैं। तथैव मकर राशिगत सूर्य समस्त क्रियाओं में पटुता एवमेव मकर राशिस्थ चंद्र परम ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है। फलतः ज्ञान एवं भक्ति की धारा स्वरूप गंगा एवं यमुना के इस पवित्र संगम क्षेत्र में चारों पुरूषार्थों की सिद्धि अल्पप्रयास में ही श्रद्धालु मानव के समीपस्थ दिखाई देती है।

प्रत्येक ग्रह किसी विशिष्ट राशि में एक सुनिश्चित समय तक विद्यमान रहता है, जैसे सूर्य एक राशि में 30 दिन 26 घडी 17 पल 5 विपल का समय लेता है एवं चंद्रमा एक राशि में लगभग 2.5 दिन तक रहता है, तथैव बृहस्पति एक राशि का भोग 361 दिन 1 घडी 36 पल में करता है। स्थूल गणना के आधार पर वर्ष भर का काल बृहस्पति का मान लिया जाता है, किन्तु सौर वर्ष के अनुसार एक वर्ष में चार दिन 13 घडी एवं 55 पल का अन्तर बार्हस्पत्य वर्ष से होता है जो 12 वर्ष में 50 दिन 47 घडी का अन्तर पड़ता है और यही 84 वर्षों में 355 दिन 29 घडी का अन्तर बन जाता है। इसीलिए 50वें वर्ष जब कुम्भ पर्व आता है तब वह 11वें वर्ष ही पड़ जाता है।